( तर्ज - दर्शन बिन जियरा तरसे ० )
काहेको भटक नर मरता है ॥ टेक ॥
अपनी अपनी सब कोई रोवे ।
क्यों तोहे समझ
न परता है ? || १ ||
जो जो गये रहे या जगमों ।
उनकी रहन निहरता है । || २ ||
बिन सत् संग न सूख कहीं भी ।
क्यों नहि यह
लख परता है ? || ३ ||
तुकड्यादास कहे भज हरिको ।
भवसागर तभि तरता है || ४ ||
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